Thursday 7 May 2020

डॉक्टर अम्बेडकर की धर्मांतरण यात्रा: कब क्या कहा.

23 मई, 1932, पुणे: गोलमेज सम्मलेन की समाप्ति के बाद पुणे में आयोजित एक सभा में डॉ अम्बेडकर ने कहा कि उन्हें मंदिर, कुएं या अंतर्जातीय भोज नहीं, बल्कि सरकारी नौकरियां, रोटी, कपडा, शिक्षा और अन्य अवसर चाहियें.
14 सितम्बर 1932, बॉम्बे: हिन्दू हितों के लिए यदि मिस्टर गाँधी अपने जीवन के साथ लड़ना चाहते हैं, तो डिप्रेस्ड वर्ग भी अपने हितों की सुरक्षा के लिए जान की बाजी लगाने को मजबूर होंगें.
13 अक्तूबर 1935, नासिक: ऐतिहासिक येओला सम्मलेन में डॉ अम्बेडकर ने कहा, “वह एक अछूत हिन्दू परिवार में पैदा हुए. इसे रोकना उनके बस में नहीं था. लेकिन नीच और अपमानजनक परिस्थितियों में रहने से इंकार करना मेरे बस में है. मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं एक हिन्दू के रूप में नहीं मरूँगा.

1 मई 1936, सेवाग्राम वर्धा: मैं किसी भी व्यक्ति को इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता. यदि कोई व्यक्ति अपनी मर्ज़ी से ऐसा करता है, तो वह धोखा देता है, जिसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं.

28 अगस्त 1937, बॉम्बे: हमें तमाम धार्मिक त्यौहार और दिनों को मनाना बन्द कर देना चाहिए, जिन्हें हम धर्म के अनुसार मनाते चले आ रहे हैं.

1 जनवरी 1938, सोलापुर: ईसाई और उनके धर्मावलम्बी दक्षिण भारत में चर्चों में जाति व्यवस्था मानते हैं. भारतीय ईसाईयों ने, एक समुदाय के तौर पर, कभी भी सामाजिक अन्याय को हटाने के लिए संघर्ष नहीं किया.

2 मई, 1950, नई दिल्ली: मेरा मानता हूँ कि मानवजाति के लिए धर्म की आवश्यकता है. जब धर्म समाप्त हो जाता है, तो समाज का भी नाश हो जाता है.

26 मई 1950, श्री लंका: मैं भारत के उन लोगों में से हूँ जो यह सोचते हैं कि भारत में बुद्धिज़्म को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए. बौद्ध देशों को केवल धार्मिक अध्ययन वृतियां नहीं देना चाहिए, अपितु उन्हें (बौद्ध धर्म के प्रसार) के लिए त्याग और प्रोत्साहित करना त्याग चाहिए.

6 जून 1950, श्री लंका: भारत ने बौद्ध धर्मं का उभार उतना ही महत्वपूर्ण है, जितनी फ़्रांसिसी क्रांति. बौद्ध मत के पहले यह सोचना भी असंभव था कि किसी शूद्र को राजसत्ता मिल जाएगी. भारत का इतिहास बताता है कि बौद्ध धर्म के विस्तार के बाद शूद्रों को राजसत्ता मिलने लगी. बौद्ध धर्म ने भारत में लोकतंत्र और समाजवादी संरचना की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया.

29 सितम्बर, 1950, वोर्ली, महाराष्ट्र: जब तक मानस पवित्र नहीं है, तब तक नैतिकता को छोड़ दैनिक जीवन में व्यक्ति गलत काम करता रहेगा. जब तक व्यक्ति को यह मालूम नहीं कि व्यक्ति को व्यक्ति के साथ क्या बर्ताव करना चाहिए, तब तक व्यक्ति और व्यक्ति के बीच में दीवारें बनती रहेंगी. भारत में इन सभी परेशानियों को समाप्त करने के लिए भारत को बौद्ध धर्म अपनाना चाहिए.

14 जनवरी, 1951, बोम्बे: बौद्ध धर्म फिर इस देश का धर्म बनेगा. बौद्ध धर्म के बारे में सोचिये, इसका परीक्षण कीजिये, अध्ययन कीजिये और तब स्वीकार कीजिये. आपको पता चलेगा कि बौद्ध धर्म सबसे महान धर्म है और जीने का वैज्ञानिक तरीका है.

15 फरवरी 1953, नई दिल्ली: गौतम बुद्ध ने कहा था, कोई भी व्यक्ति आत्मा के अस्तित्व की प्रमाणित नहीं कर सकता. मैं लगाव व्यक्ति से है. मैं व्यक्ति और व्यक्ति के बीच सही (धार्मिक) संबंधों की स्थापना करना चाहता हूँ.

24 जनवरी 1954, बॉम्बे: बुद्ध ने पंचशील, अष्टांगिक मार्ग और निब्बना का नैतिक सूत्र दिया. उन्होंने दस गुण या पारिमिताएं बताईं. दान भी एक पारिमिता है. दान देने वाला दान लेने वाले को नीची नज़र से न देखे. धर्म के नाम पर दान इकठ्ठा करना और उसका दुरुपयोग करना अपराध है.

4 दिसंबर 1954, बर्मा: इस बात को समझने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि बौद्ध धर्म के शुरुआती दिनों में इसमें शामिल होने वाले बहुतायत लोगों में निचली जातियों के लोग होंगें. बौद्ध धर्म की सासन परिषद् को ईसाई धर्म वाली गलतियाँ नहीं करनी चाहियें. ईसाईयों ने पहले अपने धर्म में ब्राहमणों को ईसाई बनाया.


14 जनवरी 1955: संत गाडगे महाराज की उपस्थिति में डॉ अम्बेडकर ने कहा कि हिन्दू धर्म में भगवान् और आत्मा के लिए स्थान है, पर उसमें मानवीय जीवन के लिए कोई स्थान कहाँ है. मैंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया है. मेरी इच्छा है की न केवल अछूतों को बल्कि सारे भारतियों को और दुनिया के लोगों को बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेना चाहिए.

12 मई 1956, बीबीसी: मैं बौद्ध धर्म को इसलिए पसंद करता हूँ क्योंकि यह हमें तीन सिद्धांत देता है. यह सिद्धांत हैं: अन्धविश्वास और आस्तिकता में विश्वास के खिलाफ प्रज्ञा; करुणा; और समता. येही वह चीजें हैं जो व्यक्ति को जीवन एक अच्छे और सुखी जीवन के लिए चाहियें.

24 मई 1956, बॉम्बे: बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म में अंतर है. हिन्दू धर्म में भगवान है; बौद्ध धर्म में भगवान् नहीं है. हिन्दू धर्म आत्मा में विश्वास करता है; बौद्ध धर्म के अनुसार आत्मा नहीं है. हिन्दू धर्म चातुवर्ण और जातियों में विशवास करता है; बौद्ध धर्म में जाति-व्यवस्था या चातुवर्ण के लिए कोई जगह नहीं है.

14–15 अक्तूबर, 1956, नागपुर: 1935 में येवला सम्मलेन में पारित प्रस्ताव के साथ ही मैंने हिन्दू धर्म छोड़ने का अभियान शुरू किया था. मैंने बहुत पहले कसम ली थी कि यद्यपि मैं एक हिन्दू के रूप में पैदा हुआ हूँ, लेकिन मैं हिन्दू के रूप में मरूँगा नहीं. मैंने अपनी बात को साबित कर दिया है. मैं बहुत खुश हूँ. मुझे नरक से मुक्ति मिल गई है. मुझे अंधविश्वासी अनुयायी नहीं चाहियें. जो बौद्ध धर्म को स्वीकार करना चाहते हैं, वह इसे समझ कर ही स्वीकार करें.


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